Sunday 30 October 2011

शायद

एक उम्मीद जगी है मन में , शायद अब वो आयेगे!
फूल  खिलेगे हर डाली, भवरें अब  गीत   सुनायेगे!!
सनेह उमड़ कर दिल से जब,आँखों में भर जायेगा!
कैसे उन से बात करेगें,बस उन को  देखे जायेगे !!
हृदय की वीणा झंकृत हो कर जब संगीत सुनाएगी!
अरमानो  की  हर एक  डाली झूमेगी  और  गाएगी !!
अरमानो  के मौन स्वर को, वो सुन कर,समझ पायेगे?
मिल-जुल कर जब बैठेगे तो, बातों पर बाते होगी
कभी हँसेगे,मुस्कायेगें   तो कभी-२ नम आँखें  होगीं
और वो अपनी नम आँखे, हौले  से  सह्लायेगे 
एक उम्मीद जगी है मन में शायद अब वो आयेगे  


 ( पुरानी पोस्ट )

Monday 24 October 2011

असली दिवाली

हृदय के दीप में प्रेम का तेल पा कर 
जब प्रीत की ज्योत जल जाती है 
असली दिवाली तो वो ही कहलाती है

किसी गैर की खुशियों  में  हमारी   भी 
आँखे ख़ुशी से डबडबाती,छलक जाती  है
असली दिवाली तो वो  ही  कहलाती   है

आदर  और  प्रेम  पाकर  बच्चो  से 
नानी,दादी जब  भाव विभोर हो जाती है
असली दिवाली तो  वो ही  कहलाती  है 

( अवन्ती सिंह ) 


धनतेरस पर हम सब ही लोग खरीदारी करते है ,इसी विषय पर एक हलकी फुलकी सी कविता लिखी है
आप सब की नज़र कर रही हूँ.....


 धनतेरस पर, सुनो  प्रिय  मुझे तुम  सोने का हार ला दो 
२ झुमके  एक  अंगूठी  और  चूड़ियाँ   दो   चार   ला  दो  
शर्ट तुम्हारे पास बहुत है,बच्चो के पास भी सब चीजे है 
मैं  ने  ही  अपने गहने जाने  कब  से  नहीं  खरीदे   है 
अब तो अपनी गृहलक्ष्मी के जीवन में थोड़ी बहार ला दो 
धनतेरस पर ,सुनो प्रिय मुझे तुम सोने का हार .........
कभी बरतन कभी  कपडे तो हम हर धनतेरस को लाते है
पर  मेरे  दिल  के  अरमां  तो सदा  दिल  में रह जाते है 
और गिफ्ट नहीं मांगूंगी कभी ,गर मुझे तुम  ये उपहार ला दो 
धनतेरस पर,सुनो प्रिय मुझे तुम सोने का हार.........
मेरी सभी सहेलियां अक्सर गहने बनवाती है
उन्हें पहन घर मेरे आती, इठलाती  मानों  मुझे चिढाती   है
शौक नहीं गहनों का मुझे,उनके मुंह बंद करने का हथियार ला दो 
धनतेरस पर, सुनो प्रिय मुझे तुम सोने का हार .......


दीपावली में दिल नहीं दिए जलाइये

फुलझड़ी  सी मुस्कान चेहरे पर जगाइए

किसी  आंगन में गर दिखे  अँधेरा

कुछ रौशनी, कुछ मुस्कांनें  दे  आइये

सब मित्रों को शुभकामना सन्देश पहुचाइए

दुश्मनों से  भी प्यार से हाथ और दिल मिलाइए

मिलावटी है मिठाई जरा कम ही खाइए

मन की मिठास को सब में बाँट आइये

दिवाली पर ही  होता माँ लक्ष्मी का जन्म दिवस

भाव  के उपहार दीजिये उन्हें , झोली मत फैलाइए

दिवाली पर दिल नहीं दिए.............

Sunday 23 October 2011

        अहसास

आज  मेरे नाती ने आकर , अपनी नाज़ुक मुलायम उँगलियों  से जब  छुआ  मेरे  चेहरे  को
 
याद आ गया वो जमाना मुझे, जब मेरी बेटी भी आकर मेरी गोदी में,मुझे ऐसे ही छुआ करती थी
 
और अपनी चुलबुली जुबां से न जाने क्या क्या बोलती थी,हँसती थी,मुस्कराती थी कली की तरह
 
जमाने  भर  की  खुशियाँ  बिखेर  देती  थी  मेरे घर के आंगन में,ऐसा  लगता  था  जैसे
 
बंद  कमरे  का  दरवाजा  खुले और   सूरज  अपनी  किरणों  से  भर  दे  कमरा  सारा 
 
महक उठता था संसार हमारा,और सारी दुनिया के रंज -ओ-गम  भुला देती  थी  उसकी  मासूम  हंसी
 
और खो जाते थे हम  अपनी  प्यारी  सी ,छोटी  सी  दुनिया  में, पुरे जहान  से   बेखबर    होके
 
लौट के आ गए वो सब पल दोबारा,जब मेरे नाती ने आकर अपनी नाजुक उँगलियों से छुआ मेरे चेहरे को 

( GHANSHYAM  SARVAIYA )

Tuesday 18 October 2011

मैं

हर हाल में हर दर्द में जिए जा रहा हूँ मैं
आंधी से कुछ तो सोच कर टकरा रहा हूँ मैं
मुझ पर हंसों ना तुम, मेरी हिम्मत की दाद दो
ज़र्रा हूँ  और  पहाड़ से  टकरा  रहा   हूँ   मैं
खंज़र पे मेरे खून है मेरे   ही   भाई  का
इस बार जंग जीत के पछता रहा हूँ मैं
मैं राह का चराग हूँ ,सूरज तो नहीं हूँ
जितनी मेरी बिसात है काम आ रहा हूँ मैं
(  अनजान शायर  )    

कमल का फूल

             कमल का फूल 

ये  जो कमल का फूल है , ये इस दुनिया का तो नहीं लगता
कैसे कीचड़ का एक कण भी, इसके निर्मल तन पर नहीं टिकता?

हम तो अपने आस पास बिखरे दुर्गुणों से निर्लेप रह पाते  नहीं है ?
 मन  को अपने  हम  क्यूँ   इतना  स्वच्छ  रख पाते   नहीं  है ?

इस ही कमी के कारण शायद  हम  ईश्वर को  नहीं    पा  पाते    है और 
कमल सहज ही ईश्वर के चरणों में,हाथों में और मस्तक पर चढ़ जाते है !

   




 

नव जीवन

              नव-जीवन 

इन  पत्तों  की  हरियाली  अब  खो चुकी है 
अब  कुछ  दिन  और  बचे  है  इन  के  पास
कुछ दिनों में ये सुखेगे, टूटेगे ,गिर    जायेगे 
क्या फिर  ये परम  शांति को  पा    जायेगे?
या किसी कोने में पड़े   चिखेगें  , चिल्लायेगे के 
हमे तो अभी भी पेड़  की वो कोमल डाली भाती है 
डाल पर वापस जा लगें,ये इच्छा रोज बढती जाती है
अब कौन समझाये इन पत्तों को, के सृष्टि के नियम से चलो
टूटने के बाद ,पहले धरती में मिलो,गलों और फिर किसी नव-अंकुर 
की नसों में  बनके  उर्जा बहों , उस के प्राणों  का  एक  हिस्सा  बनो 
तब कहीं  तुम   दोबारा  पत्ते  बनने  का  अवसर   पा    सकते    हो 
वरना तो यूँ ही इस  कोने  में पड़े पड़े बस  रो सकते हो चिल्ला सकते हो. 

( अवन्ती सिंह )                  
 
 

Friday 14 October 2011

कविता

कविता, ये    कविता   आखिर  क्या  होती  है !
तेरे और मेरे जीवन की इसमें छुपी व्यथा होती है!!
कभी तो हंसती, मुस्काती, कभी ये बार बार रोती है!
पावँ में  इस के कभी है छाले,कभी रिसते घाव  धोती है!!
कविता, ये  कविता आखिर क्या होती है ..............
मन की तड़प  छुपा लेती और बीज ख़ुशी के ये बोती है!
सपन सलोने हम को देती,पर क्या कभी खुद भी सोती है!!
कविता,  ये  कविता आखिर क्या  होती है............ 
उम्मीदे न टूटे हमारी, सदा ये यत्न प्रयत्न करती  है !
न उम्मीदी की कई गठरियाँ, ये चुपके चुपके  ढ़ोती है!! 
कविता, ये  कविता आखिर  क्या होती है.....

( अवन्ती सिंह )
 
 

 

मिर्ज़ा ग़ालिब

दर्द से मेरे है ,तुझे को     बेकरारी हाय हाय!
 क्या हुई जालिम तेरी गफलत सआरी हाय हाय!! 
क्यूँ मेरी गम खारगी का तुझ को आया था ख्याल!
दुश्मनी अपनी  थी मेरी दोस्तदारी हाय हाय !!
उम्र भर का तू ने पयमाने वफा बंधा तो क्या !
उम्र को भी तो नहीं है  पायेदारी  हाय  हाय !!
जहर लगती है  मुझे,  आबो  हवाए   जिन्दगी!
यानि तुझ से थी इसे नासाजदारी  हाय हाय!!
शर्मे रुसवाई से जा छुपना जाकर नकाबे ख़ाक में !
खत्म है  उल्फत की तुझ पर पर्दादारी हाय हाय!!
ख़ाक में नामुसे पयमाने मोहोब्बत मिल गए!
उठ गयी दुनिया से राहो रस्मेदारी हाय हाय!!
इश्क ने पकड़ा न था ग़ालिब अभी वहशत का रंग!
रह गया जो दिल में कुछ  सोकेखारी   हाय हाय !!
( मिर्ज़ा ग़ालिब ) 



 

पतझड़

क्यूँ हर तरफ  अब पतझड़ ही पतझड़ है !
आवाजें सब खामोश है,हर पंछी अब बेपर है !! 
क्यूँ ये ज़मीं इतनी शुष्क और बंज़र है !
जाये नज़र जहाँ तक भी, वीरान सारा मंज़र है!!
कसमसा कर टहनियां, टूटती है,गिर जाती है!
देख कर भी ये तमाशा ,पेड़ खामोश  है,बेबस है !!
एक डगर से कोई राहगीर अब गुज़रता ही नहीं!
छावं बची नहीं जरा भी,बस तपिश है जैसे खंज़र है!!
एक हरा तिनका भी उम्मीद का दीखता नहीं!
करे कैसे सब्र जब छाया हर तरफ ही कहर है !!
ओ खुदा अब तो लौटा दो ,मौसम ऐ बहार को !
हर दर से मायूस है हम, बस अब तुझ पे नज़र है!!
अवन्ती सिंह

Thursday 13 October 2011

                  एक मुक्तक 
यूँ तो सब कुछ है मकाँ  में, पर वो आँगन खो गया
सब से आगे है वो बच्चा जिस का बचपन खो गया
नीति कुछ  ऐसी फंसी इस   राजनीति  के  भंवर  में 
गांधियों की   भीड़ में  बेचारा  मोहन  खो  गया  


             २ रुबाइयां
     

                  1

कोसो किस्मत को, तीरगी  से डरो
या जलाओ दिए  उजाला करो 
सूनी  आँखे भली नहीं लगतीं 
इन में सपने  या नींद कुछ तो भरो
                 २
सपने हों अगर आँख में तो कम बरसे 
दुनिया उसे मिलती है जो निकले घर से
या उड़ के झपट लाओ वो काले बादल 
या घर में ही बैठे रहो प्यासे तरसे
    ( akhtar kidwai )

Wednesday 12 October 2011

           जिंदगी 

आज फिर तेरे एक शुष्क पहलु को देखा जिंदगी!
अश्रु जल आँखों में था, बहने से रोका जिंदगी !!
क्यूँ हर इन्सान तुझे अच्छा लगे है रोता, जिंदगी !
देती क्यूँ हर इंसा की उम्मीद को तू धोखा ,जिंदगी!!
क्यों तू इतनी कठोर है ,पत्थर  सी  है  तू   जिंदगी!
क्यों कोई सनेह अंकुर तुझ में ना फुटा    जिंदगी!!
हर पल हर छन दर्द तू सबको ही देती जा रही!
काश के तेरा कोई अपना भी रोता,  जिंदगी!!
बन कर कराल कालिका,तू  मौत का नृत्य करे!
कोई शिव आकर ,काश तुझे रोक लेता जिंदगी !! 
वे आँखे महागाथा सी ,लम्बी कथा सुनती 
निशब्द, किताबी आँखे वे,कितना कुछ कह जाती 

उलझे विचारों सी लगती, कभी सवेदना बन जाती 
कभी बादल की तरह उमड़ती ,कभी चिंगारी हो जाती 
वे आँखे महागाथा सी , लम्बी कथा सुनती......

कभी किलकती शिशु सी,कभी यौवन  सी इठलाती 
जीवन संध्या जीने वालों सी, कभी एकाकी  हो जाती
वे आँखे महा गाथा सी ..............

कभी कथानक, कभी संवाद ,अनगिनत  चरित्रों का संसार
ख़ामोशी से कहती कुछ कुछ ,रिश्तों की बुनियाद बनती 
वे आँखे महा गाथा सी .............
उठती ,झुकती,मुस्काती कभी इन्द्रधनुष  बन जाती
छुपाये नव  रस रस  कोरों  में, दर्द के   कतरे  छलकती 
वे आँखे महा गाथा सी .............

 ( shankar meena  )

Tuesday 11 October 2011

मित्रता
आओ आकर मिल बैठे हम,शिकवे गिले भूल जाए हम
आत्मीयता का वरण करे,देहाभिमान को भुलाए हम
ये सनेह की डोरी,प्रेम के बंधन, क्या इन का कुछ मोल नहीं?
मेत्रि और मित्रता जैसा जग मे होता कुछ और नहीं
हे मित्र मित्रता मे होता, कुछ भी अनमेल,बेमेल नहीं
ये सनेह और आत्ममीयता,सच मे है,ये कोई खेल नहीं
नाराज़गी के इस हिम गिरी को, उश्मित सनेह से पिघलाए हम
हम मित्र थे मित्र रहेगे सदा, आओ ये कसम उठाए हम
आत्मीयता का वरण करे,देहाभिमान को भुलाए हम
             मुख़्तसर नज्में 

                      १

हाँ तुम एक मंदिर बनवा लो 
और तुम एक मस्जिद बनवा लो 
क्यूंकि तुम्हारे दिल  के अंधेरों से
अल्लाह , भगवान्  वो  जो  है 
ऊब   चूका है .........
उस को नया मकान चाहिए

                     २

बंदूकों, तलवारों, छुरियों को 
कुछ दिन की छुट्टी दे दें 
बारूदों के ढेर छुपा  दें 
दूर  कहीं तहखानो में
मुस्कानों  के गहने
फिर एक बार निकाले
शायद लौट ही 
आयें बहारें 
क्या ख्याल है?
करके देखें?
( अख्तर किदवई  ) 

  

Sunday 9 October 2011

फितरत

कई बार देखा है के कुछ लोग हर बात में है चीज़ में सिर्फ दुःख और दर्द ही नज़र आता है
बहुत ही नकारात्मक तरह का जीवन जीने की आदत हो जाती है,हमे क्या क्या मिला ये
सोचने की बजाए,सिर्फ ये सोचते है के हमे क्या नहीं मिला,ऐसे  ही लोगों के लिए कुछ लाइन 
लिख रही हूँ इस दुआ के साथ के ,वो जीवन के प्रति अपना नजरिया बदल ले और खुश रहना
सीख जाये!

कुछ लोगों को गम सहने की इतनी आदत होती है
खुशियाँ आकर दस्तक दें तो उनको दिक्कत होती है
आँसूं आहें और तड़प ये उनके साथी होते है 
इन को पाल पोस कर रखना उनकी फितरत होती है
खुशियों के चंद पल भी उनको होते बर्दाश्त  नहीं 
ये सोच के भी वो रो लेते, के हम क्यूँ उदास नहीं
ऐसे लोगों के संग रहना किसी के बस की बात नहीं 
वो जीवन बस कटा करते ,जीने में विश्वास नहीं 
खुशियों की अमृत वर्षा , ईश्वर तो हर दम करते है
समझदार उसे पीते रहते और मुर्ख कहते, अभी प्यास नहीं.

   

Friday 7 October 2011

छोड़ो जाने दो

कुछ खुशियाँ दे सकता था, लेकिन छोड़ो  जाने दो!
क्या क्या कुछ हो सकता था,लेकिन छोड़ो जाने दो!!
महफ़िल-ऐ-कफ-ओ-मस्ती  थी ,एक सपनो की बस्ती थी!
दिल उसमे खो सकता था, लेकिन छोड़ो जाने दो!!
रोते रोते रात गयी, रात गयी सो बात गयी!
सोने को सो सकता था,लेकिन छोड़ो जाने दो!!
वो चेहरे के दाग नहीं थे,दामन पर कुछ धब्बे थे!
छुप के कहीं धो सकता था,लेकिन छोड़ो जाने दो!!
जो खुद भी मासूम हो  वो, मुझ पे पहला वार करे!
इतना कह भी सकता था,लेकिन छोड़ो जाने दो!!
कुछ खुशियाँ दे भी सकता था,लेकिन छोड़ो जाने दो!
क्या क्या कुछ  हो  सकता था,लेकिन छोड़ो जाने दो!!
 ( AKHTAR ANSAR KIDWAI )

Thursday 6 October 2011


दिवाली
दिवाली की पावन बेला एक सहेली सी लगती है!
दिए की लौ देखो तो अधखिली कलि सी लगती है!!
बल्बों की सुंदर लड़ियाँ दिवाली के गजरे जैसे!
और लटकी कंदीलें, उसके  माथे की बिंदियाँ लगती है!!
रंग बिरंगी रंगोली,  उसकी चुनर के फूल हो  जैसे!
छुटे जब फुलझड़िया, मुझको दिवाली हँसती लगती है!!

दिवाली की पावन बेला एक सहेली सी लगती है....
दिए की लौ देखो तो अधखिली कलि सी लगती है!!
लक्ष्मी पूजन जब होता तो, जैसे नमन करे दिवाली!
धृत क्रीडा होते  देखे तो उसकी आँखें नम  सी होती है!!
पीकर मदिरा कोई गिरे तो, चिंतित हो जाती दिवाली!
हाथ जले गर किसी बच्चे का, दिवाली रोती  लगती है!!
खील-पताशे और मिठाई, उपहार दिवाली के लगते है!
स्नेह  से सब मिल बैठे तो, दिवाली सजती लगती है!! 
दिवाली की पावन बेला एक सहेली सी लगती है....
दिए की लौ देखो तो अधखिली कलि सी लगती है!!
अवन्ती सिंह

Wednesday 5 October 2011

कभी हम ध्यान से शितिज की तरफ देखे तो धरती आकाश
मिलते हुए प्रतीत होते है और कोई कवि-मन तो उनके बीच के
वार्तालाप को भी सुन पता है,इसी तरह की एक वार्ता को कुछ
पंक्तियों मे सजा कर आप की नज़र कर रही हूँ.
रोज सुबह की तरह मैं आज भी उगते सुरज को निहार रही थी!
अचानक लगा ऐसे जैसे धरती आकाश को पुकार रही थी!!
हे! गगन हे! आकाश,फिर से अपनी बादल रुपी बाहें फैलाओ ना!
कई दिन से हो दूर दूर,आज फिर हृदय से लगाओ ना!!
जब तुम अपना स्नेह,जल के रूप मे बरसते हो!
तब तुम नव जीवन का मुझ मे संचार कर जाते हो!!
फिर मैं हरीतिमा की चुनर औड कर,करके फूलों से शृंगार!
अपने बालक रुपी जीवों मे बाँट देती हूँ, तुम्हारे सनेह से उपजे उपहार!!
हमारे इसी मिलन से निरंतर,चलता रहता है सृष्टि का कारोबार!!!

Tuesday 4 October 2011

मेरे बच्चे मेरे क्रिटिक्स

मैं जब भी कोई कविता लिखती हूँ  तो वो ठीक बनी या नहीं ये जानने के लिए बच्चों को कविता सुना  कर उनकी 
प्रतिक्रिया से अंदाजा लगाने की कोशिश करती हूँ के सब को पसंद आएगी या नहीं,सच  जानियेगा वो बड़ी जांच -परख करते है और काफी दोष निकलते है,कई सलाह भी देते है यहाँ ये ठीक नहीं,ऐसे लिखो,ये हटा दो,उनकी 
मुझे दी जाने वाली सलाह और कुछ अपनी कल्पना से मैं ये ये कविता लिखने की कोशिश की है,कविता का शीर्षक है. 

मेरे बच्चे मेरे क्रिटिक्स 

 हर कविता में एक नयापन चाहते है श्रोता,फिर हृदय-पटल पर उसे स्थान दे पाते  है श्रोता!
कहा कवि ने एक ताज़ी कविता को लिखकर, अभी-२ लिखी है जरा डालिए तो एक नज़र !!
काम अभी तो बहुत है, कल परसों सुन लेगे,कम करते हो गलतियां अब तो,उँगलियों पर गिन देगे!
फिर  बैठ कर आराम से गलतियां सुधर लेना,जहाँ -२ हम कहे दो चार नए शब्द भी ड़ाल  देना!!
 एक कमी और है आप में, कोमा, फुलस्टाप  कम लगते हो जो मन में आये बस लिखते ही जाते हो!
जरा तो पढने वालों के बारे में सोचा कीजिये, कविता पढने वालों पर प्लीज़ इतना जुल्म न कीजिये!! 
कविता पढने में हमे आनन्द भी तो  आना चाहिए,जो रोचक/मनभावन हो वहीँ विषय उठाना चाहिए!
कविता अगर न भाये तो आखिर कब तक सुन पायेगे,बना कोई न कोई बहाना इधर-उधर हो जायेगे!!
अरे अधिक निराश नहीं होना,कभी-2 ठीक भी लिखते हो,कुछ कविताएं उम्दा है कुछ अच्छे  गीत भी लिखते हो
कुछ कथा/साहित्य रोज पढ़ा कीजिये उससे बढ़ता ज्ञान है,करत करत अभ्यास के ही जड़मति होत सुजान है!!
लिखते हुए आप को अभी तो   दिन  हुये ४ है,व्यर्थ   की  चिन्ता करो  नहीं  चिन्ता करना बेकार  है!
आगे अब क्या कहे आप खुद ही समझदार है,आप ने पूछा इस लिए हम ने किये व्यक्त विचार है!!









Monday 3 October 2011

दुर्गा भी तुम्ही, देवी भी तुम्ही,
और शक्ति का अवतार हो तुम
तुम सरस्वती ,तुम लक्ष्मी हो
और श्रृष्टि कि रचनाकर हो तुम

प्रिय मेघा --
जब तुमने मुझसे जन्म लिया
वह पल क्षण अब भी याद मुझे
खुद मेरे जन्म दिवस पर आ
माँ बनने का सौभाग्य दिया
और 'मेघा ' बन कर बरसी तुम
जीवन मेरा उद्धार किया ,

प्रिय बरखा --
और तुम बरसी 'बरखा 'बन कर
ये घर तुमसे गुलज़ार हुआ
इक खास दिवस तुमसे भी जुड़ा
'प्रेम- दिवस' जन्मोत्सव पड़ा
मै धन्य हिई तुमको पाकर
भरपूर सहारा तुमने दिया

तुम मेरी शक्ति ,तुम मेरा प्रेम मेरे जीवन कि आशा
मेरा विस्तार हो तुम, तुम हो तो मैं हूँ ,
मेरी हर आशा तुमसे जुडी ,,,
सदा जीती रहो ,सहनशील ,कुलीन ,शालीन बनो
(एक सीख माँ की जीवन में कभी डरना नहीं ,,,चाहे कोई मुसीवत कोई विपता हो

Saturday 1 October 2011

आशा की किरण
रात गयी सो बात गयी, देखो, एक नई सुबह हुई!
आशा की नई किरणे, बाहें फैलाये   बुलाये अपने आगोश में!!
 आज मन में जागी है नई उमंगे, और नई उम्मीद से सजी है जिंदगी!
 आज हूँ मैं आज़ाद पंछी की तरह, तैयार    ऊँची उड़ाने भरने के लिए!!
होंसले  है   बुलंद,   और   पक्के    है     इरादे     मन       में      मेरे!
अब न कोई रोक पायेगा मुझे, और ना  मैं कभी पीछे हटूंगी !!
कहने को हूँ मैं अबला नारी, लेकिन मुझ में भी है साहस  भारी !
अब ना देखूं पीछे मुड़ कर, मुझे तो बस आगे   बढना    है!!
और बढते ही जाना है, जब तक ना पा लूँ मैं मंजिल अपनी!
रात गयी सो बात गयी ...............
(एक अनजान शायर )