Friday 23 December 2011

कल आधी रात के बाद

कल आधी रात के बाद एक कविता ने मुझे झन्झोर कर जगा दिया
पहले     तुम     मुझे     लिख     तो    तब    ही    तुम्हे   सोने   दूँगी
ये कह कर मुझे डरा दिया ...................
समझाया मैं ने उसे ,तुम क्यूँ हो रही  हो बेकरार
ज़रा    तो    करो    सुबह    होने    का    इंतजार
उठते ही सबसे पहले   मैं करूँगी  तुम्हारा शृंगार
सज़ा-धजा,नव वस्त्र पहनाकर, दूँगी  तुम्हे  काग़ज़  पे   उतार
हंस कर बोली कविता,   पागल   नहीं    हूँ,  मुझे   है  सब  पता
२  गीत  और १  ग़ज़ल  मुझ  से आगे   वाली    पंक्ति मे खड़े है
उतरेगे काग़ज़   पर   मुझ   से  पहले,इस   ज़िद्द   पर    अड़े   है
अगर   मैं   सो   गई,  या मष्तिश्क  की गलियों मे कहीं खो गई
मुझे आने मे देर हुई ज़रा भी तो   बाज़ी मार ले जाएगे वो ज़िद्दी
नहीं पता मुझे कुछ भी,अभी करो मेरा शृंगार ...............
पहनाओ मोतियन के हार,सज़ा-धज़ा कर,दो मुझे काग़ज़ पे उतार
फिर तुम भी  सो जाना  पल दो चार....................
आख़िर मैं गई कविता से हार,शीघ्र किया उसका शृंगार
किया नया  कलेवर तैयार,दिया   उसे   काग़ज़ पे उतार
काश! मेरी नींद ना   करने लगे अब   कोई   ज़िद्द बेकार
वो आ ही जाए पल दो चार.....

जीवन चक्र

बहारों के आने  मे   वक़्त  तो लगता है
खिज़ाओं के जाने मे वक़्त तो लगता है
मगर अब   तो ज़िंदगी गुलज़ार है  मेरी
सारे जहाँ   की  खुशियाँ ताबेदार है मेरी
ना जाए यह  खुशिया ,यहीं थम सी जाए
अब तो यही  चाहत,लगातार   है     मेरी
मगर यह है चाहत ,नियम तो  नही यह
बहारों को एक दिन तो जाना    ही  होगा
खिज़ाओं को वापस तो आना ही    होगा
यह चक्र तो    यूँ    ही    चलता   है सदा
एक    आता    है    तो एक लेता है विदा
तो फिर क्यू ना खुद को नियती चक्र के लायक बना लूँ मैं
दुख और    सुख    के   मध्य    की   अवस्था  को पा लूँ मैं 



(एक पुरानी रचना)